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जौनपुर। घोसला बनाकर रहने वाली गौरेया हो रही विलुप्त “गौरैया” की फूदकन और चहकन’ भी हुई गायब

20 मार्च विश्व गौरैया दिवस पर विशेष
जौनपुर(19मार्च)। घरों में घोसला बनाकर रहने वाली गौरेया की फुदकन और चहकन न जाने कहां खो गई। हर आंगन में फुदकती नन्ही सी जान को निहारने से आंखें नहीं थकती थी। आंगन में गिरे अनाज के छोटे से तिनके को चुंग कर अपन पेट भरने वाली गौरैया लोगों के जेहन में बरबस ही आकर कौंधने लगता है। आंगन में चावल बीनती मां के थाली से चावल के दानों को चुग कर इठलाती थी। इन नन्हीं जान की फुदक-फुदक कर प्रत्येक चावल के दानों पर अपना भी हक जाहिर कर करती थी।

फोटो-विलुप्त होती गौरैया

बात और किसी की नहीं अपितु प्यारी सी नन्ही सी चहचहाती “अपनी गौरैया” यानी आंगन की गौरैया पक्षी की हो रही है। जो अब ना जाने कहां खो गई। आज भी बूढ़ी दादी मां उनकी यादों को अपने नाती पोतों से बड़े ही उत्साह के साथ जिक्र करती हैं। घर के आंगन से गौरैया का एक गहरा नाता कभी हुआ करता था। तो इनका प्रिय निवास भी कच्चा मकान ही हुआ करता था। इनके घारौदे भी अक्सर इन्हीं मकानों में ही लोगों को देखने को मिलते थे। सदियों से गौरैया और मानव का एक गहरा नाता रहा है। ये घरों के आंगन से लेकर आस पास के वृक्षों की डालियों तथा दरवाजों के चौखटो पर दिखने की स्मृति भर अब शेष रह गई है। कभी यह आंगन में पहुंचकर फुदक फुदक  कर जो लुका छिपी का खेल माताओं और बच्चों से खेलती थी वह आज भी लोगों के जेहन में बरबस ही आ जाता है। बात गौरैया के शारीरिक संरचना की हो तो बमुश्किल इनकी लंबाई 10 से 15 सेंटीमीटर और वजन 20 से 25 ग्राम होता है। इनको ठंडा स्थान खूब भाता था। एक बार में 3 से 4 अंडे को देती हैं। ये लोगों को जब भी दिखाई देती थी झुंड में ही। आज इनकी संख्या अत्यधिक कम हो चुकी है । यह लोगों को अब गाहे-बगाहे ही नजर आती हैं। इसके पीछे कच्चे मकानों का समाप्त होना भी कुछ हद तक माना जा सकता है। क्योंकि गावों में कभी इनका बसेरा कच्चे मकानों में ही हुआ करता रहा। पर्यावरण विदों की मानें तो इसके पीछे प्रदूषण भी काफी हद तक जिम्मेदार है। इनका वजूद बचा रहे ये हमारी नज़रों से हमेशा के लिए ओझल न हो जाए। इसी को ध्यान में रखते हुए इनके प्रति इनके संरक्षण हेतु विश्व गौरैया दिवस मनाया जाने लगा। गौरैया दिवस की शुरुआत 2010 में हुई। एक वक्त ऐसा भी था जब इनकी “फूदकन आंगन में और इनकी चाकन कानों में” गूंजती रही। किंतु वक्त बदला और इनकी  फूदकन और चहकन समय के साथ न जाने कहां खो गई। इनके संरक्षण के लिए दिल्ली सरकार ने तो इसे अपने यहां “राज्य पक्षी” तक घोषित कर दिया है। गौरैया दिवस मनाने की सार्थकता तभी सही मायनों में सार्थक होगी जब लोग जागरूक होंगे और इनकी संख्या में बढ़ोतरी होगी। आज भी लोग गौरैया के चहकन और फूदकन को अपलक निहारने के लिए लालाइत रहते हैं। टीडी कालेज के प्राणि विज्ञान के प्रो. डा. देवब्रत मिश्र ने बताया कि प्रर्यावरण में आएं बदलाव और प्रदुषण के कारण गौरैया तेजी से विलुप्त हो जा रही है। इनके रहने के लिए आवास के संसाधन सिमट ग्रे है जिसके कारण गौरैया अपना घोंसला, कच्चे मकानों में बनाते हैं। लेकिन कच्चा मकान भी विलुप्त हो रहे हैं।

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